संस्कृत “ क्यों पढ़ें और जानें?

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यह एक दुर्योग ही कहा जाएगा कि पिछले दो सदियों में भारत वर्ष के लिए भारत देश कई अर्थों में बेगाना होता चला गया। पहले अंग्रेजी हुकूमत ने भारत को भारत से दूर करते हुए इसे “इंडिया” नामक उपनिवेश में तब्दील किया। यह बदलाव भौगोलिक नक्शे में नाम बदलने तक ही नहीं रहा बल्कि सोच-विचार, आचार-विचार और आदर्शों-मूल्यों तक विस्तृत होता गया। उसी की स्मृति को संजोते हुए आज “इंडिया दैट इज भारत “ की अवधारणा हमारी नियति बन चुकी है। इसी बाहर से आरोपित आकार-प्रकार वाली समझ को ढोने में हम अपना श्रेय ढूंढते फिरते हैं और कृतकृत्य भी होते हैं। राजनैतिक रूप से स्वतंत्र होने के बाद के सात दशकों में भी स्थिति ज़्यादा बदली नहीं। आज भी हमें उस जमीन का ही अता-पता नहीं है जिस पर हम खड़े हैं और न उस अगाध ज्ञान राशि से कोई ख़ास सरोकार ही बन पाया है जिसके हम स्वामी हैं। आधुनिक और अत्याधुनिक बनने के प्रयास में हम पश्चिमी दुनिया की प्रतिलिपि-दर-प्रतिलिपि बनते गए। यह तो “स्वराज “और “स्वाधीनता “ का उद्देश्य कदापि न था।

सांस्कृतिक अस्मिता के समूल उच्छेदन का जो काम औपनिवेशिक राज में हुआ था वह स्वतंत्र भारत की हमारी अनुकरणमूलक शिक्षा में बदस्तूर जारी रहा । उधार में लिए गए प्रगति, उन्नति और विकास के पैमानों को हमने अपनाया और प्रतिष्ठित किया । पश्चिम को सार्वभौमिक और सर्वथा उपयुक्त मान कर हम गिरते पड़ते दौड़ लगाते रहे । इस दौड़ की उपलब्धियां मिली जुली रहीं हैं । आत्मनिर्भर और आत्मसंपन्न होने का लक्ष्य तो अभी तक नहीं प्राप्त हो सका पर यह ज़रूर हुआ है कि पश्चिम की तमाम अच्छी बुरी प्रवृत्तियाँ हममें घर करती गईं । आत्मसंशय और आत्मग्लानि का भाव भी हमने आत्मसात कर लिया । निज भाषा-भाव, आचार-विचार, वेश-भूषा, ख़ान-पान सभी से हम लगातार दूर भागते गए । हमें अपनी अस्मिता के सहस्रों वर्षों के पुराने सारे अवशेष मिटाने का कोई अधिकार नहीं है । ऐसा करने में हमें लज्जा भी नहीं आई । आज पश्चिम पर्यावरण की हानि और अहिंसा के उलझते प्रश्नों से जूझ रहा है । उस पूरी संस्कृति के लक्ष्य और समृद्धि की लिप्सा की पोल खुल रही है। सुख, शांति और समृद्धि को लेकर महास्वप्नों की कड़ियाँ अब तेजी से चटक रही हैं ।

इस पृष्ठभूमि में भारत अमृत काल का संकल्प ले रहा है और एक सशक्त और समर्थ भारत बनाने की चेष्टा हो रही है। यह नया भारत अपनी संस्कृति और ज्ञान परम्परा को नए सिरे पहचानने की कोशिश कर रहा है। इस प्रयास का वैचारिक आधार हम अपनी संस्कृति में ढूँढ रहे हैं । शिक्षा व्यवस्था को भी इसके अनुकूल अवसर बनाया जा रहा है। इस कार्य में संस्कृत भाषा, साहित्य और उसमें निहित सिद्धान्तों की बड़ी भूमिका है। संस्कृत भाषा चिरंतनकाल से भारतीय संस्कृति के प्रमुख प्रवेश द्वार का कार्य कर ती आ रही है। इस वाग्द्वार से गुज़र कर हमारा प्रवेश लोक और विविध प्रकार की विद्याओं और शास्त्रों के समृद्ध एक विशाल ज्ञान- प्रागण में होता है। वेद , वेदांग, स्मृति ग्रंथ , महाकाव्य, धर्मशास्त्र , गणित , विज्ञान अर्थ शास्त्र , नीति शास्त्र , दर्शन, साहित्य , योग और आयुर्वेद आदि विषयों की अकूत संपदा से परिपूर्ण यह प्रांगण प्रकृति , जीवन, और समाज सबसे जुड़ा हुआ है। साथ ही इन सबको व्याप परम सत्ता के स्पंदन से भी अनुप्राणित है। इस परिवेश की प्राण वायु मूलत: संस्कृत ही है । सबको स्पर्श करने वाला उसका यह स्पन्दन अति प्राचीन काल से भारतीयों में एक बहुमूल्य संतुलित जीवन दृष्टि का संचार कर रहा है। इसका वाचिक माध्यम बनी संस्कृत अनेकानेक भारतीय भाषाओं की जननी भी है। संस्कृत की लचीली , तार्किक और सर्जनात्मक भाषिक विशेषताएँ उसे ज्ञान के अर्जन और सम्प्रेषण के लिए विशेष रूप से उपयुक्त बना देती हैं।

जीवन के विविध प्रयोजनों से जुड़ कर संस्कृत और उसकी निकटवर्ती पालि और प्राकृत की भाषा सभ्यता और संस्कृति के साथ अभिन्न रूप से जुड़ गई। यह अकुंठ भाव से ज्ञान -सृजन , ज्ञान- संरक्षण और ज्ञान -संवर्धन का अथक प्रयास करती आ रही है। इसमें रचे गए शास्त्र मालवीय मेधा के मानक सदृश अपनी विविधता, व्यापकता और गहराई से विश्व में चमत्कृत कर देते हैं। इस ज्ञान संपदा का होना हजारों वर्षों की सतत साधना का परिणाम है। इस परम्परा में ज्ञान कोई तटस्थ वस्तु न हो कर मुक्तिदायक अर्थात जीवन के क्लेशों और समस्याओं से छुटकारा दिलाने वाला माना गया। ज्ञान की प्रक्रिया से परे कुछ भी नहीं है। भारत में ज्ञान की गरिमा को अनेक रूपों में प्रतिष्ठित किया गया है। भौतिक हो आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में ज्ञान का प्रकाश अज्ञान के अंधकार को दूर करता है।

संस्कृत की ज्ञान परम्परा की कुछ विशेषताएँ सबको लुभाने वाली हैं। इसमें प्रयुक्त शब्दों और अवधारणाओं को ज्ञान के प्रभावी उपकरण के रूप में लिया गया है क्योंकि शब्द से ही किसी वस्तु की पहचान होती है और प्रामाणिकता का पता चलता है। आख़िर शब्द से ही किसी वस्तु या अनुभव तकभाम पहुँच पाते हैं-सर्वं शब्देन भासते। शब्द की महत्ता को इंगित करने के लिए ऋग्वेद में वाक्सूक्त रचा गया तो आगे चल कर शब्द ब्रह्म की अवधारणा को भी प्रतिपादित किया गया, सरस्वती के रूप में वाक् को देवी का दर्जा दिया गया। शब्द की विभिन्न शक्तियों और शब्द की उत्पत्ति की स्थितियों (परा , पश्यंती और वैखरी )और भाषा के पद तथा वाक्य आदि विभिन्न स्तरों पर प्रयोग, शब्दार्थ का विश्लेषण और शब्द की विभिन्न भूमिकाओं की विस्तृत दार्शनिक व्याख्या की भी गई। संस्कृत व्याकरण शास्त्र अपनी उपलब्धियों के लिए विश्व विश्रुत है।पाणिनि का अष्टाध्यायी मानव बुद्धि के ऐसे निकष के रूप में ख्यात है जिसने संस्कृत भाषा के प्रयोग को सबल वैज्ञानिक आधार प्रदान किया।

संस्कृत में तार्किक विवेचन की शैली बड़ी सतर्क है। उसमें मूल तर्क को सुरक्षित रखते हुए संवाद की गुंजाइश बनी रहती है। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द के प्रमाणों का सटीक उपयोग कराते हुए प्रमाणिक ज्ञान पाने के लिए सतत यत्न किया जाता रहा। यदि स्मरण में बनाये रखने की सुविधा के लिए संक्षिप्त आकार वाली सूत्र की प्रणाली अपनाई गई तो उस पर भाष्य और टीका ग्रन्थों की रचना भी खूब की गई। इस परम्परा में पूर्व पक्ष अथवा पुराने सिद्धांतों की चर्चा के साथ ही नए विचार या उत्तर पक्ष को प्रस्तुत करने का विधान है। ब्रह्म -सूत्र , योग -सूत्र , धर्म -सूत्र , भक्ति -सूत्र , काम- सूत्र आदि का निरन्तर परिष्कार होता रहा और चर्चा होती रही । ये सभी विषय सामान्य जीवन से जुड़े हैं। धर्म , रस , आत्म , ब्रह्म और योग आदि की अनेक अवधारणायें शुद्ध यहीं की देन हैं।

विचार स्वातंत्र्य संस्कृत की तीसरी विशेषता है जो विभिन्न दर्शनों में परिलक्षित होती है। भारतीय दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों (स्कूल्स ) के बीच और एक ही संप्रदाय के विशेषज्ञों के बीच विवेचन की शैलियों और निष्कर्षों में विविधता मानसिक स्वातंत्र्य का तुमुल उद्घोष करती है। यह सर्जनात्मक प्रतिभा का उन्मेष ही है जो वेदांत की विविध शाखाओं के रूप में में अद्वैत, शुद्धाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत आदि रूपों में निबद्ध हुआ। इसी तरह बौद्ध और जैन दर्शन में भी प्रचुर मात्रा में चिंतन उपलब्ध है। इस ज्ञान परम्परा में एक सत्य के अनुभव और प्रकाशन की विविधता सदैव ग्राह्य बनी रही। “एकं सत विप्रा: बहुधा वदन्ति “ की उपनिषद वाणी सिर्फ़ दिखावे के सद्भाव को ही नहीं व्यक्त करती बल्कि अकादमिक सहिष्णुता को भी व्यवहार में दिखाती है।

इस परम्परा में ज्ञान का प्रवाह सतत बना रहा और वह एक ऐसी जीवन दृष्टि का स्रोत है जो मूलत भारतीय होते हुए भी वैश्विक रूप से प्रासंगिक और बहुमूल्य है।संस्कृत की ज्ञान परम्परा संकुचित न होकर व्यापक दृष्टि की है जिसमें सबके लिए स्थान है। इससे परिचय और इसके उपयोग से मनुष्य के विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। इसे खोकर उन संभावनाओं से महरूम हो जायेंगे जिनमें मनुष्यता का वास है। सारे विपत्तियों संघर्षों के बीच भी मनुष्य सार्थक जीने की अभिलाषा रखता है। संस्कृत उसी जिजीविषा को जगाती है।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)